संघ और मोदी का संघर्ष
संघ के अंकुश से मोदी निकल चुके हैं।
संघ को एहसास तो होने लगा था पहले से हीं परंतु ये भरोसा था कि अंकुश में ले लेंगे।
2024 के चुनाव के बाद प्रधानमंत्री के चयन प्रक्रिया में संघ ने समझा था कि पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक में बहुमत से अपने पसंद के नेता का चयन करवा लेंगे। परंतु पार्लियामेंट में संघ के वफादार सदस्य कम हैं, मोदी जी के वफादार ज्यादा हैं। मोदी जी और अमित शाह जी ने टिकटें हीं ऐसे उम्मीदवारों को दिये जो या तो अन्य पार्टियों से आये थे या राजनीतिक थे हीं नहीं। राज्यों के मुख्यमंत्रियों के चयन में भी यही ध्यान रखा कि कोई प्रस्थापित नेता ना हो। ये स्वाभाविक है कि ये सब मोदी जी के वफादार होंगे। इस तरह मोदी जी ने ऐसा वर्चस्व बना लिया कि अब उन्हें संघ डरा नहीं सकता। संघ की मजबूरी यह है कि वो खुलकर मोदी जी का विरोध भी नहीं कर सकते। क्योंकि उनके पास विकल्प हीं नहीं। भागवत् जी अब उदारवादी, सहिष्णु, समदर्शी होने का दिखावा करने के लिए वक्तव्य दे रहे हैं। जो सब कुछ उनकी नजरों के सामने होता रहा उस कलंक से बचने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में वो मोदी जी और संघ के बीच की दूरी को और बढायेंगे। फिर नड्डा जी ने जो हल्के शब्दों में कहा था कि भाजपा को संघ की जरूरत नहीं वो बात खुल्लेआम कही जाने लगेगी। मोदी जी और अधिक मुक्तता महशुस करेंगे।